This is a rendition of me, and of many of us, our own small struggles in our own small world.
And this could not have been written in any other language, than my mother toungue.
मैं
राम नहीं कि तुम्हारे
अन्दर के रावण को
मारूँ
मैं
अर्जुन नहीं जो कृष्ण
के एक इशारे पर
रुढ़ियों का सीना छलनी
करुँ
मैं
दुर्गा नहीं कि हर
हाथ में शस्त्र उठा
दुष्टों का नाश करुँ
मैं, तो
केवल मैं हूँ
मेरी
लड़ाई सिर्फ़ अपने अंदर धधकती
आग से है
मेरी लड़ाई मुझ
से, मेरे लिये है
मेरा
ध्येय इस ज्वाला को
ज्योति बनाना है
मुझे
पल पल जलना नहीं,
मुझे जीवन पथ पर
बढ़ जाना है
मैं प्रहलाद
नहीं, जो जल कर भी जी जाऊँ
मैं, तो
केवल मैं हूँ
मेरा
हर घाव अभी भी
हरा है
कोई
जलता है, कोई रिसता
है
पर हर घाव अभी
भी दुखता है
मुझे
हर घाव पर मलहम
लगाना है
उन्हें
दबाना नहीं, छुपाना नहीं, सिर्फ़ सहलाना है
मैं
अहिल्या नहीं जो पत्थर
बन सब सह जाऊँ
मैं, तो
केवल मैं हूँ
मैं
राम नहीं, अर्जुन नहीं, दुर्गा नहीं
मुझ
पर निर्भर संसार नहीं
पर तुम भी तो रावण नहीं, भीष्म नहीं, महिषासुर नहीं
तुम
भी सिर्फ़ तुम हो, तुम
मेरा जीवन सार नहीं
और मैं,
मैं, तो
केवल मैं हूँ
3 comments:
नारी की अस्मिता को आज के परिप्रेक्ष्य मे पौराणिक सन्दर्भों के साथ अभिव्यक्त किया है |
ये इस कविता की खास विशेषता है | गहराई मे उतरकर भावों को संजोया है |
ज्वाला से ज्योति बन जाने का उपक्रम एक सकारात्मक दृष्टिकोण है | मैं तो मैं हूँ --में गज़ब की दृढ़ता है
बहुत सुंदर कविता.. आज की ज़िन्दगी में ऐसी ही संतुलित विचार धारा की ज़रूरत है.
nice !! tum sirf tum ho :)
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