चेहरे पर,
वक्त
की लकीरों के निशान,
कुछ
मिट गये, कुछ रह
गये।
पतंग
की डोर से बाँधे
जो अरमान,
कुछ उड़ चले, कुछ ज़मीं पर ही रह गये।
रक्त
की स्याही से लिखे तुझे
जो पैगाम,
कुछ
भूल गये, कुछ कह
गये।
वक्त
की लकीरों के निशान, चेहरे
पर रह गये ||
वक्त,
पानी
के धारे-सा,
बाधा
के पत्थर को ठेलता चला
गया,
कहीं
कोनो से रिसता,
कहीं
मझधार में डुबो, बड़ा
गया |
पानी
की लहरों में उठते सौ
तूफान,
हम चापू पकड़े, आँखें
मींचे बस सह गये।
कागज़
की कश्ती में रखे सब
सामान,
कुछ
डूब गये, कुछ बह
गये।
वक्त
की लकीरों के निशान, पत्थरों
पर रह गये॥
वक्त,
हवा
के झोंके-सा,
ऊँचे
परवत से भी ऊपर
उड़ चला,
कभी
फूलों की खुशबू सा,
कभी
मिट्टी की सुगंध सा
महका चला |
हवाओं
के सीने में गूँजते
ज़िन्दगी के फरमान,
कुछ
चुपचाप सुने, कुछ अनसुने से
रह गये |
सूखे
तिनकों से बनाये जो
मकान,
कुछ
टूट गये, कुछ ढह
गये |
वक्त
की लकीरों के निशान, रेत
के ढेरों पर रह गये
॥
वक्त,
गुलाब
की पंखुड़ी सा,
किताब
के पन्नों में सिमट गया,
हमें
लगा हमने बाँध लिया,
पर अलमारी की दरारों से सरक गया |
यादों
की डायरी में संजोये जीवन
के एहसान,
कुछ
जी भर जिये, कुछ
जी में ही रह गये |
सूखे
गुलाब में बन्द वादों
के बयान,
कुछ
पूरे हुए, कुछ अधूरे
रह गये |
वक्त
की लकीरों के निशान, किताब
के पन्नों पर रह गये
॥
1 comment:
प्रस्तुत कविता के कुछ अंश बहुत महत्वपूर्ण और सटीक हैं ।रक्त की स्याही से पैगाम लिखना,पत्थरों पर लकीर खींचना और तूफान मे चापू चलाना जीवन की कठोरतम परिस्थिति और कठिन संघर्ष को व्यक्त करता है तो ऊंचे अरमानो को पतंग की ऊंची डोर से जोड़ना और गुलाब की पंखुड़ी किताब के पन्नों मे रखना जीवन के सहज और व्यवहारिक रूप को दर्शाता है।निश्चित ही मानव और प्रकृति के परस्पर संबंध को अत्यंत सुन्दरता से अभिव्यक्त किया गया है।
साधुवाद
--सरिता बख्शी
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